Friday, August 17, 2018

जब वाजपेयी ने खुद कश्मीर का ज़िक्र छेड़ा

वर्ष 1999 में वाजपेयी की पाकिस्तान यात्रा को कवर करने वाले बीबीसी उर्दू के आसिफ़ फ़ारुक़ी, मीनार-ए-पाकिस्तान वाले वाकये को याद करते हुए कहते हैं, "वाजपेयी ने बताया था कि उनसे कई लोगों ने कहा कि आप वहां जाएंगे तो पाकिस्तान पर मुहर लग जाएगी लेकिन वाजपेयी साहब ने उन लोगों को कहा कि भाई पाकिस्तान पर तो मुहर पहले ही लग चुकी है. पाकिस्तान तो बन चुका, उसे हमारी मुहर की ज़रूरत नहीं है.
''शाही किले में खुद उन्होंने कश्मीर का ज़िक्र छेड़ा. ये तब बड़ी बात थी कि भारत का प्रधानमंत्री पाकिस्तान के शाही किले में खड़ा होकर कश्मीर की बात करे, जबकि ये वो वक्त था जब कोशिश रहती थी कि कश्मीर लफ़्ज़ किसी की जुबां पर ना आए.''साल 2001 में जब आगरा समिट हुआ तो उससे पहले हालात काफ़ी बिगड़ चुके थे. मेरे साथ जिन पत्रकारों ने लाहौर भी कवर किया था, हम सबको लग रहा था कि वैसी विनम्रता नहीं थी, एक तरह का ईगो था दोनों देशों के नेताओं में.''
''वाजपेयी की अपनी मजबूरियां भी थीं. वो भरोसा नहीं कर पा रहे थे. साल 1999 में ही करगिल हुआ था. फिर भी साथ बैठकर टेबल पर खाना खाया. ये भी एक स्टेट्समैन होने की ही निशानी थी.''
बात कोई दो दशक पहले की है. आगरा में वाजपेयी-मुशर्रफ शिख़र वार्ता का आयोजन हुआ था. मेज़बान और मेहमान के खाने-पीने के बंदोबस्त का ज़िम्मा मेरे मित्र जिग्स कालरा को सौंपा गया था. मेनू बड़ी सावधानी से तैयार किया गया.
जिग्स ने मुझे ख़बरदार किया, "गुरू! वाजपेयी जी खाने के ज़बरदस्त शौक़ीन हैं- कुछ कसर न रह जाए. फिर मुल्क की इज़्ज़त का भी सवाल है. पाकिस्तानियों को नाज़ है अपनी लाहौर की खाऊ गली पर. हमें उन्हें यह जतलाना है कि सारा बेहतरीन खाना मुहाजिरों के साथ सरहद पार नहीं चला गया. इसके अलावा कुछ नुमाइश साझा विरासत की भी होनी चाहिए."
ख़ुशक़िस्मती यह थी कि पूर्व प्रधानमंत्री ने अपनी पसंद-नापसंद थोपने का हठ नहीं पाला. बस शर्त रखी कि खाने का ज़ायका नायाब होना चाहिए. इस बात का हमारी पूरी टीम को गर्व है कि जो भी तश्तरियाँ उस गुप्त वार्ता वाले कमरे में भेजी जातीं, वह ख़ाली लौटती थीं.
लाने ले-जाने वाले मज़ाक़ करते थे कि मुशर्रफ़ तो तनाव में लगते हैं पर पंडित जी निर्विकार भाव से संवाद को भी गतिशील रखते हैं और चबैना भी निबटा रहे हैं.
वाजपेयी जी का अच्छा खाने-पीने का शौक़ मशहूर था. वह कभी नहीं छिपाते थे कि वह मछली-माँस चाव से खाते हैं. शाकाहार को लेकर जरा भी हठधर्मी या कट्टरपंथी नहीं थे. दक्षिण दिल्ली में ग्रेटर कैलाश-2 में उनका प्रिय चीनी रेस्तराँ था जहाँ वह प्रधानमंत्री बनने से पहले अकसर दिख जाते थे.
मिठाइयों के वह ग़ज़ब के शौक़ीन थे. उनके पुराने मित्र ठिठोली करते कि ठंडाई छानने के बाद भूख खुलना स्वाभाविक है और मीठा खाते रहने का मन करने लगता है.
बचपन और लड़कपन ग्वालियर में बिताने के बाद वह विद्यार्थी के रूप में कानपुर में रहे थे. भिंड मुरैना की गज्जक, जले खोए के पेड़े के साथ-साथ ठग्गू के लड्डू और बदनाम क़ुल्फ़ी का चस्का शायद तभी उनको लगा था.

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